सुना है कि यह भारत में डिसऑनेस्टतम समय है। कभी कहा जाता था कि भारत को चंगेज खान ने लूटा, तैमूर लंग ने लूटा, अब्दाली ने लूटा, अंग्रेजों ने लूटा।
अब लूटने का नम्बर भारतीय लूट-एलीट का है। आये दिन नये नये नाम आ रहे हैं। इनके सामने चंगेज/तैमूर/अब्दाली/अंग्रेज पिद्दी नजर आते हैं। मुंह पिटाऊ। खाने की तमीज नहीं थी इनको।
सबसे लुटेरी साबित हो रही है भारतीय कौम। और तो बाहरी लोगों को लूटते हैं। ये घर को लूट रहे हैं। ऑनेस्टी पैरों तले कुचली जा रही है।
(रेलवे लेवल – क्रॉसिंग के पास इस ठेले वाले को देखा। आंखों पर काला चश्मा चढ़ाये था – शायद मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद। भीगे चने, नमक, कटी प्याज और पुदीना/धनिया के दोने बेच रहा था। बार बार एक गन्दे मग से पानी छिड़कता जा रहा था चनों पर। मुझे नहीं लगता कि वह ऑनेस्टी या स्कैम के मुद्दों से कुछ परेशान होगा। अलबत्ता, मंहगाई से परेशान होगा जरूर!)
जो रुदाली हैं, वे यह रुदन नहीं कर रहे कि वे लूटे जा रहे हैं। रुदन के मूल में है कि हाय हम भी लुटेरे क्यों न हुये। हमारा लड़का अगर कमाऊ नौकरी में होता, बढ़िया नेता होता या तिकड़मी बिजनेस मैन तो कई पीढ़ियां तर जातीं। दुख देश के भ्रष्टतर होते जाने का नहीं है, दुख इस बात का है कि बहती वैतरणी में हम भी हाथ क्यों नहीं धो पा रहे।
ईमानदारी अब सामाजिक चरित्र नहीं है। मुझे नहीं लगता कि स्कूलों-कॉलेजों मैं नैतिकता पर कोई जोर दिया जाता है। मैने यह भी पढ़ा है कि बडे और चमकते शिक्षण संस्थान दूकान काले धन के सबसे बड़े उत्पादक हैं – रीयाल्टी सेक्टर की तरह। लिहाजा उनसे कोई उम्मीद नहीं है। जवान पीढ़ी से भी कोई उम्मीद रखी जाये या नहीं – इस पर सोच संदिग्ध है।
ऐसे में आप बेइमानी और लूट पर अपनी खीझ, क्रोध या व्यंग लिख सकते हैं। उससे आगे कुछ नहीं। उससे आगे आप अपना अंगूठा चूस सकते हैं।
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